Thursday, August 20, 2009

हास्य कविता

(ऑफ़-सीज़न)
होली के कार्यक्रमों से
दीवाली मनाने के बाद
कवि सम्मेलनों में एक ऐसा दौर आता है
जिसे ऑफ़सीज़न के नाम से जाना जाता है।
मय-जून-जुलाई के ये महीने
हाय-हाय तेरे क्या कहने
इनदिनों पसीने के साथ-साथ
कार्यक्रम भी बह जाते हैं
बडे -बडे कवि खाली ही रह जाते हैं ।
खाली बैठे-बैठे हमने भी अपने
कवि मित्र को यूँ ही
खाली पीली में मिस कॉल किया ...
जिसका जबाब उसने भी मिस कॉल से ही दिया ॥
मिस कॉल पाते ही हमे बडी शान्ति मिली ....
क्यूंकि अगला भी था अपनी तरह खाली पीली ॥
वरना यही टॉप-सीज़न में हुआ होता
तो मिस कॉल के जबाब में ३-३ कॉल आ गया होता।
ऑफ़-सीज़न की महिमा अपरंपार है
बडे से बडे पफोर्मरे कवि भी इन दिनों शूट हो जाते हैं
और बिना कविता पढ़े ही हूट हो जाते हैं ।
बिचारा कवि ऑफ़-सीज़न में
ओक्स्सिज़ं भी कम ही लेता है
ओक्स्सिज़ं की अधिक मात्रा भूख बढ़ा देती है
और घर बैठे -बैठे ही आटा दाल के भाव बता देती है॥
कई दिनों से हम भी थे उदास
मन करता था फाड़ दे कलेंडर से ये तीन मास
कि तभी हमारे मोबाइल पर एक आयोजक मित्र का फ़ोन आया
फ़ोन उठाने से पहले हमने दूर-संचार विभाग का आभार जताया
फ़ोन उठाते ही आयोजक ने कहा....
"भाई साहब अगले सोमवार को हमारी बिटीया की शादी है
हमने विराट कवि सम्मलेन करवाने की ठानी है
आप भी जरुर आईयेगा
अपनी सबसे प्रसिद्ध रचना सुनायेगा"
कवि सम्मलेन का नाम सुनते ही
हमने बिना लिफाफे का वज़न पूछे हाँ कर दिया
और धन्यवाद ज्ञापन कर फ़ोन धड दिया
अगले सात दिन सात घंटे में बीत गये
हमने भी अपना शानदार नया वाला कुरता
जो कभी पुराना नही होता
स्पेशल धोबी से प्रेस करवाया
उसे दस रूपये देते हुए जेब जरा भी नही घबराया
कार्यक्रम स्थल पे पहुचने के लिए
महीनों बाद ऑटो भी किया
उसे भी पॉँच रूपये ज्यादा ही दिया
विवाह समारोह में
कविता पाठ को एक से एक बडे कवि आए थे
श्रोताओं को भी खूब भाये थे
हमने भी बहुत दिनों से कविता ना सुना पाने का
मलाल पूरा कर लिया
और एक एक कर १० कविताओं का दर्द
श्रोताओं के सिर भर दिया ।

मन ही मन हम बहुत हर्षा रहे थे
क्यूंकि हमारी कविता पे
आयोजक महोदय भी पूरा मज़ा उठा रहे थे
सम्मलेन समाप्त होते ही सारे कवि टूट पडे शादी के खाने पे
मगर हमारा ध्यान तो लगा था मोटे लिफाफे पे
बहुत देर बाद भी जब लिफाफा नही मिला
तो ऑफ़-सीज़न का मारा
बेचारा कवि मन बोल ही पडा
भाई साहब आप अगर मानदेय दे देते
तो हम भी घर की ओर हो लेते
मानदेय नाम सुनते ही आयोजक बोला
मानदेय की आप से कहाँ हुई थे बात
बाकी कविओं से भी पूछ लीजिये आप
सभी से बस खाना खिलाने की बात कही थी
आप ही बताईये
बिटीया की शादी में लिफाफे की बात सही थी?
इतना कह कर वो खिसक लिए
अपने तो होश ठिकाने हो लिए
कई मेहमानों को कन्यादान करते पाया
तो मज़बूरी में ही सही
मगर हम ने भी अपना फर्ज़ निभाया
१०१ रूपये का लिफाफा कन्या के हवाले किया
ऑफ़-सीज़न का प्रकोप लिए घर को पैदल ही चल दिया ।

4 comments:

Unknown said...

ha ha ha
waah bhai shambhuji............ha ha ha

गगन शर्मा, कुछ अलग सा said...

शम्भू जी,बच गये। खाना तो मिला। कहीं किसी बंगाली भाई ने "भोजोन" है कह कर बुला लिया होता तो भजन के बाद ऐसे ही लौटना पड़ता।(-:

Vinay said...

पेट पकड़कर हँस रहे हैं
---
मानव मस्तिष्क पढ़ना संभव

Arun Mittal "Adbhut" said...

वाह वाह .......... क्या कवियों की दुखती राग पे हाथ रखा है ............ अच्छा है भाई कविता का पहला साथ प्रतिशत भाग सचमुच बहुत ही दमदार है .... बाद में थोडा और नयापन हो सकता था...... वैसे आपकी प्रस्तुति अच्छी है आप निभा लेंगे

सादर

अरुण अद्भुत